Tuesday, May 22, 2012

बुराई क्या है और बुराई को मिटाने के लिए कोई अपनी जान क्यों गवांए ? Evil

गधों और कुत्तों से बदतर हैं दहेज मांगने वाले
हमने दहेज मांगने वालों का हौसला तोड़ने के लिए यह पोस्ट लिखी तो देहरादून से राजेश कुमारी जी ने अपने कमेंट में कहा कि
अनवर जमाल जी बहुत सटीक और सार्थक बात कही है आजकल इन दहेज़ के लालचियों को इसी भाषा ऐसे ही शब्दों की जरूरत है मेरा बस चले तो इस पोस्ट के कई हजार पोस्टर बनवाकर देश की हर दीवार पर चिपका दूं बहुत बहुत हार्दिक आभार
शुक्रिया राजेश कुमारी जी।
अच्छी बातों का प्रचार ज़्यादा से ज़्यादा होना ही चाहिए।

इस पोस्ट पर कोटा, राजस्थान के जनाब दिनेश राय द्विवेदी जी का कमेंट भी मिला है।
अनवर भाई,
आमिर ने जो भी तीनों मुद्दे सत्यमेव जयते में दिखाए हैं, उनसे सहमति है। लेकिन यह तो टीवी पर बहुत बरसों से दिखाया जा रहा है। लोगों पर उस का कोई असर नहीं होता। लोग शो देखते हैं, भावुक हो कर ताली पीटते हैं, आँसू बहाते हैं और कसमें खाते हैं। समाज वहीं का वहीं रह जाता है। टीवी वाले पैसा बना कर निकल लेते हैं।
यहाँ भी वही होने वाला है।
कोई भी मुद्दा जब तक समाज में सामूहिक रूप से सतत न उठाया जाए तब तक उस का यही अंत होता है।
जरूरत है ऐसे आन्दोलनों की जो समाज में उठें और समाज को इन बुराइयों से मुक्त कराने तक अविराम चलते रहें।
यह भी सोचने की बात है कि इस समाज में ये सब बुराइयाँ आज भी क्यों मौजूद हैं? क्यों कि जो व्यवस्था परिवर्तन होना चाहिए था वह रोक दिया गया। भारत के आजाद होने तक सामन्ती आर्थिक संबंध प्रमुख थे और पूंजीवाद गौण। पूंजीवाद बच्चा था। उस के दो शत्रु एक साथ खड़े हो गए थे. एक तो सामन्तवाद जिसे समाप्त करने की जिम्मेदारी पूंजीवाद की थी। दूसरी मेहनतकश जनता अर्थात किसान, मजदूर और नौकर पेशा लोग। ये पूंजीवाद को खत्म कर देना चाहते थे। पूंजीवाद ने सामंतवाद से हाथ मिला लिया, क्यों कि वह पूंजीवाद को नष्ट नहीं कर सकता था। दोनों मिल कर अब मोर्चा ले रहे हैं। ये सामाजिक बुराइयां,सम्प्रदायवाद, जातिवाद किसान, मजदूर और नौकर पेशा लोगों को एक नहीं होने देते। इस कारण इन सब चीजों को सत्ता का संरक्षण मिलता है।

इन बुराइयों को समाप्त करने के लिए पूंजीवाद और सामंतवाद के गठजोड़ से बनी वर्तमान फर्जी जनतांत्रिक सत्ता पर हमला बोलना होगा,उसे नष्ट करना होगा उस के स्थान पर वास्तविक जनतंत्र स्थापित करना होगा, मेहनतकश जनता का जनतंत्र।
लेकिन यह सब आमिर नहीं करेंगे। क्यों कि वे भी उसी सत्ता के एक औजार मात्र हैं।
जनाब दिनेश राय द्विवेदी जी के कमेंट का एक जवाब तो हमने अपनी पोस्ट पर ही दे दिया है और थोड़ा सा यहां यह भी कहना है कि
बुराई के ख़ात्मे के लिए एक तो बुराई की पहचान ज़रूरी है और दूसरे उसे ख़त्म करने की इच्छा शक्ति से भरे हुए कार्यकर्ताओं की ज़रूरत है।

बुराई क्या है ?
इसे तय किया जाना ज़रूरी है वर्ना हरेक आदमी जिस बात से दिक्क़त महसूस करेगा, उसी को बुराई घोषित कर देगा।
ग़रीब आदमी पैसे की कमी को बुराई कहेगा और अमीरों के सफ़ाए में अपनी मुक्ति देखेगा तो ऐसे ग़रीबों को पूंजीपति एक बुराई के रूप में देखेंगे और वे उनके सफ़ाए की या दमन की कोशिश करेंगे।
किस की कोशिश सही है और किस की कोशिश ग़लत है ?, यह कैसे तय किया जाएगा ?

वेश्याएं और उनके दलाल ग्राहकों की कमी को अपने लिए बुरा समझेंगे और अपने ग्राहक जुटाने के लिए कोशिश करेंगे तो उनकी कोशिशों को समाज के कुछ लोग बुराई के तौर पर देखेंगे।
बुराई क्या है ?
यह सवाल हर क़दम पर उठेगा।

इसके बाद यह सवाल उठेगा कि एक आदमी पूंजीपति की नौकरी करके अपने बच्चे पाल रहा है। उसके पास घर, बीवी-बच्चे और रोज़गार सब कुछ है।
वह ग़रीब आदमी के जीवन को बेहतर बनाने के लिए कोई आंदोलन क्यों चलाए और क्यों दुख उठाए ?
आंदोलन और क्रांति में कार्यकर्ताओं की जान भी चली जाती है।
दुख भोगने वाले ग़रीब आंदोलन चलाएं तो समझ में आता है कि वे अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए कोशिश कर रहे हैं। कुछ पाने की कोशिश में ये ग़रीब मर भी जाते हैं तो ठीक है लेकिन दूसरों का जीवन बेहतर बन जाए, इसके लिए वे क्यों मरें जिनका जीवन आज बेहतर ही है ?
मरने के बाद अगर कुछ मिलने वाला नहीं है और जो कुछ मिलता है, वह सब इसी जीवन में मिलता है तो फिर वे दूसरों के चक्कर में अपना जीवन क्यों गवाएं ?
मरेंगे वे और जीवन बेहतर बनेगा दूसरों का।
दूसरों के चक्कर में कोई भी अक्लमंद आदमी मरना पसंद न करेगा जबकि मरने के बाद कुछ मिलना ही नहीं है, जैसा कि आपकी मान्यता है।

पहली समस्या तो बुराई की पहचान को लेकर खड़ी होती है और दूसरी समस्या इसके सफ़ाए के लिए कार्यकर्ता जुटाने में आती है।

समाज में समस्या है और लोग उसका हल चाहते हैं। उनकी समस्या को लेकर कुछ लोग खड़े होते हैं और वे पूंजीपतियों को डराते हैं कि ग़रीब लोग बहुत ग़ुस्से में हैं।
पूंजीपति उनसे हाथ मिला लेते हैं। ग़रीबों के हक़ के लिए लड़ने वाले पूंजीपतियों की ढाल बन जाते हैं और ग़रीबों के संघर्ष की दिशा बदल देते हैं। ग़रीब लोग उनके नेतृत्व में बरसों नारे लगाते रहते हैं लेकिन कोई सामाजिक क्रांति नहीं आती।
आखि़र कोई भी सामाजिक क्रांति क्यों नहीं आती ?
इसीलिए नहीं आती क्योंकि ग़रीबों के नेता अपना जीवन बेहतर बनाने में जुटे हुए हैं। ग़रीबों के आक्रोश से डराकर वे सरकार और पूंजीपतियों से वसूली करते रहते हैं। इन नेताओं के झोंपड़े महलों में बदल जाते हैं। अगर इन्होंने सचमुच क्रांति की होती तो इनकी जान कब की चली गई होती।
कोई क्यों मरे जबकि ज़िंदगी की हसीन बहारें उसके इस्तक़बाल के लिए तैयार खड़ी हों ?

इन दो सवालों को हल कर लिया जाए तो बुराई का ख़ात्मा किया जा सकता है।
1. बुराई क्या है ?
2. दूसरों का जीवन बेहतर बनाने के लिए कोई अपना जीवन क्यों गवांए और अपने बीवी बच्चों को दर दर का भिखारी क्यों बनाए ?
जब यह धारणा आम हो जाए कि मरने के बाद कुछ होना नहीं है तो फिर इस ज़िंदगी को बेहतर बनाने के लिए आदमी कुछ भी कर सकता है क्योंकि वह जानता है कि दुनिया में सज़ा कम ही मिलती है और यह कमज़ोरों को ज़्यादा मिलती है।
देखिए 

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मुंबई।। हरियाणा के यमुनानगर में एक महिला डॉक्टर द्वारा अबॉर्शन के बाद कन्या भ्रूण को टाइलेट में फ्लश करने के बाद उससे भी भयावह मामला सामने आया है। महाराष्ट्र के बीड में एक ऐसे ही 'डॉक्टर डेथ' का पता चला है, जो कन्या भ्रूण के अबॉर्शन के बाद सबूत मिटाने के लिए उसे अपने कुत्तों को खिला देता था।

Tuesday, May 15, 2012

मुस्लिम छात्र ने खिड़की से कूदकर नंगी लड़कियों से जान बचाई

यमन देश के छात्र के प्रति यौन हिंसा करने के इल्ज़ाम में 5 अमेरिकी छात्राएं गिरफ़्तार
वाशिंगटन (एजेंसियां)। ऐरिज़ोना राज्य के एक कॉलिज में यमन का एक छात्र असाम अश-शरई पढ़ता है। उसके आवास में 5 लड़कियां दाखि़ल हुईं और अंदर से ताला लगाकर अपने कपड़े उतार कर असाम अश-शरई को पकड़ लिया। असाम ने उनकी मिन्नत समाजत की लेकिन वे उस पर यौन संबंध बनाने के लिए दबाव डालती रहीं। उन पर कोई असर न पड़ा और उनकी हरकतें बढ़ती गईं तो असाम ने कहा कि ‘मैं एक दीनदार मुसलमान हूं और इसलाम अपनी बीवी के अलावा किसी दूसरी औरत से नाजायज़ ताल्लुक़ात की इजाज़त नहीं देता।‘
उन पांचों लड़कियों पर इस बात का भी कोई असर नहीं पड़ा तो असाम अश-शरई ने खिड़की से कूदकर अपनी जान बचाई और पुलिस को इत्तिला दी। पुलिस ने पांचों लड़कियों को उसके आवास से गिरफ़्तार कर लिया है। उन लड़कियों ने इल्ज़ाम क़ुबूल करते हुए बताया कि उनकी नज़र में असाम साइकोलोजिकली टेंशन में था। हमने उसे कई बार कहा था कि वह उनके साथ अपनी मर्ज़ी से सेक्स करे लेकिन वह तैयार नहीं हुआ तो उन्हें इस तरह उसके आवास में घुसना पड़ा।
यह वाक़या एक ऐसी यूनिवर्सिटी में हुआ है जिसमें शिक्षा सत्र पूरा होने के बाद 5 हज़ार लड़कियां नंगे होकर मैराथन रेस में हिस्सा लेती हैं। उनकी कपड़ों की निगरानी यूनिवर्सिटी की तरफ़ से की जाती है। उनके कपड़ों को तौला गया तो आधा टन वज़्न हुआ।

यह ख़बर कल 15 मई 2012 को राष्ट्रीय सहारा उर्दू के पृ. 12 पर छपी।
इस ख़बर से इस्लाम और पश्चिमी दुनिया की सोच और किरदार एक साथ सामने आ जाते हैं। पश्चिमी दुनिया का नंगापन हिंदुस्तान में भी आम होता जा रहा है। नई तालीम दिलाने वाले मां-बाप अपनी औलाद के लिए ऊंचे ओहदे का ख़याल तो रखते हैं लेकिन उसके किरदार का क्या होगा ?
इसे वे भुला देते हैं।
यही वजह है कि अकेले बेंगलुरू में ही हर साल 2 हज़ार से ज़्यादा लोग ख़ुदकुशी कर रहे हैं।
नंगेपन और ख़ुदकुशी दोनों का इलाज है इसलामी सोच।