Tuesday, May 17, 2011

ईश्वर और आत्मा की अमरता में आस्था मनुष्य के दिमाग में स्वाभाविक और प्राकृतिक तरीके से होते हैं The Great Discovery


नास्तिक लोग ऐसा दिखावा करते हैं जैसे कि वे तर्कवादी हैं और अगर कोई बात तर्क और विज्ञान की कसौटी पर पूरी उतरेगी तो वे उसे मान लेंगे। जबकि हक़ीक़त ये है कि वे अपने हठ और अंधविश्वास में किसी दूसरे अंधविश्वासी के समान ही होते हैं। उनकी बौद्धिकता और निष्पक्षता की आज़माइश के लिए हम एक आधुनिक शोध पेश कर रहे हैं। इसे पढ़ने के बाद भी जो नास्तिक, संशयवादी, और अज्ञेयवादी इसे स्वीकार न करे, उसे किसी सत्य की तलाश नहीं है, ऐसा मानना चाहिए। 
पेश है हिंदी दैनिक ‘हिंदुस्तान‘ (दिनांक 16-05-2011) में प्रकाशित संपादकीय आलेख :

जिन लोगों पर पूरे सोवियत साम्राज्य के पतन का कोई असर नहीं हुआ, उनके विश्वास पर पश्चिम बंगाल में वामपंथियों की करारी हार से भी कोई असर नहीं पड़ेगा। इसकी वजह शायद यह है कि अपने आप को तर्कवादी और वस्तुवादी मानने वाले लोगों के लिए साम्यवाद तर्क आधारित धारणा नहीं है, बल्कि मन की आस्था है।
शायद कट्टर मार्क्सवादी इस बात का बुरा मानें, लेकिन ऐसा लगता तो है। जहां तक धार्मिक आस्था, ईश्वर और आत्मा की अमरता में आस्था का सवाल है, तो ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के दो शोधकर्ताओं का कहना है कि ये चीजें सामाजिक या सांस्कृतिक माहौल की वजह से नहीं होतीं, बल्कि मनुष्य के दिमाग में विश्वास स्वाभाविक और प्राकृतिक तरीके से होते हैं।
धर्म या धार्मिक दर्शन सिर्फ इन स्वाभाविक विश्वासों को एक सुव्यवस्थित, वैचारिक ढांचा प्रदान करता है। 57 शोधकर्ताओं ने अलग-अलग संस्कृतियों वाले 20 देशों में 40 से ज्यादा प्रयोगों के विश्लेषण से यह पाया। उनका कहना है कि तमाम संस्कृतियों में धार्मिक आस्था मानव स्वभाव का एक स्वाभाविक अंग है। अब मुमकिन है कि तर्कवादी लोग ईश्वर में नहीं, बल्कि विज्ञान या मार्क्सवाद जैसी विचारधारा के महाशक्तिशाली और दोषरहित होने पर गहरा विश्वास करें, और किसी भी सूरत में अपने विश्वास से न डांवाडोल हों।
मनुष्य का यह सहज स्वभाव है कि वह अपनी व्याप्ति सिर्फ अपने शरीर या मन तक नहीं मानता, वह किसी विराट अस्तित्व का भरोसा अपने अंदर लिए होता है। यह सवाल मनुष्य ने बहुत शुरू से ही पूछना शुरू कर दिया था कि मेरे अस्तित्व का क्या अर्थ है? इसकी सीमाएं क्या हैं? यह सृष्टि कैसे बनी? इसके पीछे कौन-सी ताकत है? और मैं अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कैसे कर सकता हूं?
ऋग्वेद का विख्यात नासदीय सूक्त उस शुरुआती प्रश्नाकुल आदमी के सवालों को सामने लाता है, जो विराट प्रकृति के सामने आकार में छोटा-सा था, लेकिन जिसे लगता था कि अस्तित्व के बुनियादी सवालों के जवाब अगर उसे मिल गए, तो वह अपने छोट-से अस्तित्व का अतिक्रमण कर सकता है। ये सवाल कहीं से रोजमर्रा के भोजन, सुरक्षा और शारीरिक सुखों से जुड़े हुए नहीं थे, तब उसने पाया सृष्टि के दूसरे जीवों और विराट प्रकृति से जुड़कर वह भी विराट हो सकता है।
इसी तरह शरीर की मृत्यु के साथ पूरे अस्तित्व के नष्ट न होने का विश्वास भी बुनियादी है। यह विश्वास भी तमाम संस्कृतियों में किसी न किसी रूप में पाया जाता है। कुछ संस्कृतियां इस विश्वास के चलते शवों को ममी बनाकर रखती थीं। एक स्तर पर यह विश्वास सूक्ष्म, आध्यात्मिक और दार्शनिक हो गया, जिससे ज्यादातर संस्कृतियों में शरीर को संरक्षित रखना जरूरी नहीं माना गया। ये विश्वास स्वाभाविक तौर पर हमारे दिमाग में होते हैं, इसलिए धार्मिक चिंतन में इन्हें स्वयंसिद्ध मानकर ही चला जाता है।
धार्मिक चिंतन की मान्य प्रणाली में पहले आस्था है और उसके बाद तर्क है। लेकिन तर्कवादी विचार प्रणाली में जो चीज तर्क और प्रयोगों में साबित होती है, उसे ही सत्य माना जाता है। आध्यात्मिक विचार में तर्क के अलावा भावना और अंत:प्रेरणा को भी सत्य तक पहुंचने का रास्ता माना जाता है, बल्कि इन्हें ज्यादा प्रामाणिक माना जाता है।
इसीलिए विज्ञान और तर्क के समर्थक धर्म को संदेह से देखते हैं। लेकिन क्या हम सारे विज्ञानवादियों और तर्कवादियों के बारे में दावे से कह सकते हैं कि उनके चिंतन में वैज्ञानिकता और तर्क ही प्रमुख है ? अनुभव यही बताते हैं कि तर्क और विज्ञान पर भी उनकी आस्था ही पहले आती है, पीछे तर्क आता है। इसलिए ही हमारे वामपंथी अपने विश्वास पर टिके रहेंगे, दुनिया चाहे जिधर जाए।
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लेख को साभार लिया गया है इस जगह से 

3 comments:

Ayaz ahmad said...

एक बेहतरीन शोध

सञ्जय झा said...

GOOD POST...

SALAM

zeashan haider zaidi said...

Nice post. Hamesha ki tarah!