Thursday, November 25, 2010

A thought about Father Manu जुल्म पिताश्री मनु ने किया या उनकी संतान उन पर करती आ रही है ? Anwer Jamal

आज 'धर्म उतना जोड़ता नहीं जितना कि दौड़ना है' शीर्षक ब्लाग एग्रीगेटर पर नज़र से गुज़रा । पूरा लेख पढ़ा और कमेँट भी दिया । उसी कमेँट को पूरा किया तो यह पोस्ट प्रकट हुई -

आपका तर्कपूर्ण और रोचक लेख पढ़ा ।
देशवासियों में आज भी वैज्ञानिक चेतना का अभाव है , ठीक ऐसे ही उनमें धार्मिक चेतना भी लुप्तप्रायः है ।
धर्म की शास्त्रीय परिभाषा पर उन्हें परख कर देख लीजिए ।
यह परिभाषा भी वेद पुराण या मनु स्मृति से ही ले लीजिए ।
अंधविश्वास और जड़ता धर्म नहीं होती । वाल्टेयर , बुद्ध और महावीर का विद्रोह जायज़ था । समाज के प्रवाह और विकास में जो भी चीज़ बाधा बनती है उसे अंततः विदा होना ही पड़ता है । तत्कालीन हालात ऐसे ही थे ।
लेकिन धर्म आज भी दुनिया के हर समाज में अपना मक़ाम बनाए हुए है तो केवल इसलिए कि इंसान के अस्तित्व और उसके मकसद के बारे में तमाम तरक्की के बावजूद आज भी विज्ञान आज भी कुछ बता पाने में असमर्थ है ।
विज्ञान का क्षेत्र केवल ज्ञानेँद्रियों की पकड़ मेँ आने वाली चीजों का निरीक्षण परीक्षण करके निष्कर्ष निकालना है लेकिन वह तो अपने दायरे तक में बेबस पाया जाता है ।
पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति कैसे हुई ?
यह मूल प्रश्न भी वह आज तक न सुलझा पाया , तब वह उन सवालों के जवाब कैसे दे सकता है जिनका विषय चखने सूंघने और सुनने के दायरे से ही बाहर है ?
1. आखिर मैं हूँ कौन ?
2. मुझे क्या करना चाहिए और क्या नहीं ?
3. क्या सही है और क्या ग़लत है ?
4. किस कर्म का फल क्या है ? और वह कब और किस रूप में मुझे मिलेगा ?
ये वे प्रश्न हैं जो हरेक के मन में कौंधते रहते हैं , उनके मन में भी जिन्होंने धर्म के विकृत रूप के प्रति विद्रोह किया । उन सभी लोगों ने भी इन प्रश्नों को अपने विचारानुसार हल करने की कोशिश की । फलतः अनेक दर्शन वजूद में आये । दुनिया को बांटने वाले वास्तव में यही दर्शन हैं धर्म नहीं ।
धर्म के अभाव में लोगों ने दर्शनों को अपनाया और बहुत से दर्शनों को अपनाने का यह हुआ कि मानव जाति बहुत से मतों में बंट गई । बांटने वाली चीज़ दर्शन है धर्म नहीं ।
पहले सब एकमन थे बाद में बंटकर अनेक हुए और फिर आपस में लड़े कि श्रेष्ठ कौन है ?
ज़मीन और उसके साधनों पर कब्जे की हवस में एक दूसरे का खून बहाया । इंसानियत को तबाह करने वाली चीज यही हवस है धर्म नहीं ।
ये सभी दर्शन आज भी समाज में मौजूद हैं , यह हवस आज भी इंसान में मौजूद है । नतीजा यह है कि तबाही के सारे कारण और साधन आज भी मौजूद हैं और खुद तबाह होने और करने के लिए इंसान भी ।
ऐसे आदमियों के हाथों विज्ञान का विकास होने का नतीजा यह हुआ कि उन्होंने सभी वैज्ञानिक साधनों को अपनी हवस पूरा करने का जरिया बना लिया और नतीजा यह हुआ कि इंसान के ख़मीर से लेकर आबो-हवा तक हर चीज़ का संतुलन तबाह होकर रह गया है ।
अतः सिद्ध हुआ कि आदमी धर्म से कोरा हो तो विज्ञान भी उसका विनाश ही करेगा न कि कल्याण । 
मूल है धर्म , इस मूल से कटने के बाद न तो विज्ञान और दर्शन कुछ हैं और न ही खुद इंसान ।
शुभ गुणों से युक्त होकर सार्थक रीति से जीने का नाम धर्म है । मेरे पिता मनु ने यही रीति सिखाई थी ।
मनु को बेवजह कोसना आज बुद्धिजीवियों का प्रिय शग़ल बन चुका है , जबकि ऐतिहासिक और तार्किक रूप से यह सिद्ध है कि आज की मनु स्मृति मनु के काल जितनी प्राचीन नहीं है ।
दूसरी बात यह है कि आर्य समाजी और सनातनी स्कॉलर दोनों ही मनु स्मृति को प्रक्षिप्त मानते हैं ।
तीसरी बात यह है कि जो श्रद्धालु इसे प्रक्षिप्त नहीं भी मानते वे भी यह देख सकते हैं कि मनु स्मृति में जितनी भी आपत्तिजनक चीजें हैं वे सब 63 वें श्लोक के बाद हैं , जहाँ से भृगु जी व्यवस्था देना शुरू करते हैं ।
शुरू के सभी 62 श्लोक भी मनु जी द्वारा नहीं कहे गए हैं । इसके बावजूद उनमें कहीं एक रत्ती भी जुल्म की तालीम या प्रेरणा नहीं है क्योंकि उनमें केवल वंशावली आदि का बयान है ।
मैं गर्व नहीं करता क्योंकि गर्व करना जायज नहीं है लेकिन मैं चैलेंज जरूर करूँगा कि पूरी दुनिया में कोई एक ही आदमी यह साबित कर दे कि जुल्म की तालीम मनु देकर गए ।
और अगर साबित न कर सकें तो फिर मेरे पिता मनु को इल्ज़ाम देना और कोसना छोड़ दें, तुरंत ।
अन्यथा उन्हें केवल पूर्वाग्रही माना जाएगा न कि विद्वान । अपुष्ट बातें कहना विद्वानों को शोभा नहीं देता ।
जो कुछ मनु वास्तव में सिखाकर गए थे उसे तो कब का भुलाया जा चुका लेकिन कुछ चिन्ह ऐसे हैं जिन्हें देखकर आज भी  मनु याद आते हैं और उनका धर्म भी । मनु मेरे मन में रहते हैं और मेरा मन दुखी होता है उनकी निंदा होते देखकर ।
मनु की महानता का परिचय पाने के लिए धर्म का सच्चा बोध होना जरूरी है । यह बोध केवल उन लोगों को होता है जो जीवन और उसके मकसद के प्रति सचमुच गंभीर हों ।
Eat, drink and be marry अमीर गरीब सबका तरीका आज प्रायः यही है । जीवन के मकसद को पाने के बजाए साधनों को पाने और बढ़ाने में लगे हैं । जिन्हें मिल गए हैं वे दूसरों पर छा जाने में लगे हैं और जिन्हें ये साधन कम मिले हैं वे कमी का रोना रोने में लगे हैं , उनकी   छीन झपट में लगे हैं ।
दुनिया को तोड़ने वाली हैं लोगों की नीयतेँ और नीतियां, और दोष दे रहे हैं मनु को और धर्म को ।
क्या यही है आधुनिक दुनिया के बुद्धिजीवियों की नैतिक चेतना और उनका इंसाफ़ ?

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